हमें ईश्वर से भय करना चाहिए अथवा प्रेम?

हमें ईश्वर से भय करना चाहिए अथवा प्रेम ? 

प्रश्न: हमें ईश्वर से भय करना चाहिए अथवा प्रेम?  मेरी व्यक्तिगत मान्यता है कि "भय", आज्ञाकारिता की दिशा में पहला कदम है।
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उत्तर: अरबी शब्द "तक़वा" का अनुवाद प्रायः 'डर' के रूप में किया जाता है। 
'वाओ', 'क़ाफ़', 'या' की मूल धातु 'प्रेम / भक्ति' को इंगित करती है। ईश्वर का भय वैसा नही है जैसा जानवरों, भूत या बुरे लोगों का होता है। ईश्वर से प्रेम किया जाता है।

जब किसी से प्रेम एक सीमा से अधिक हो जाता है तो "डर/भय" स्वतः जन्म लेता है। 
यह डर/भय किसी डरावनी वस्तु के डर से भिन्न, "प्रेम की पराकाष्ठा" से उतपन्न होती है। 
यह डर, अपने प्रेमी के नाखुश हो जाने का है। 
यह भय या असुरक्षा की भावना, प्रेमी की आज्ञा की अवहेलना से रोकता है।

यही प्रेम और भय का मिश्रण "तक़वा" है जिसका क़ुरआन आदेश देता है।

"...वह जो आस्था रखते हैं वह ईश्वर से अत्यधिक प्रेम करते हैं।" क़ुरआन 2:165

क़ुरआन कहता है कि आस्थावान लोग ईश्वर की भक्ति या प्रेम में लीन रहते हैं। 

क़ुरआन, भय आधारित आज्ञाकारिता की संकल्पना को प्रोत्साहित नही करता। 

ईश्वर के प्रेम में लीन होकर हम बुरे कर्मों से बचें और ईश्वर के आज्ञाकारी बने।  

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