हाल की दुखद घटना, धार्मिक ग्रंथों में हिंसा और सोशल मीडिया की भूमिका

 भाग 1: हाल की दुखद घटना और सोशल मीडिया की भूमिका

हाल की हत्या की घटना ने पूरे देश को झकझोर दिया है और सभी में ग़म का माहौल है। इस समय में लोग स्वाभाविक रूप से सरकार, कानून प्रवर्तन और न्याय व्यवस्था से अपराधियों को न्याय के दायरे में लाने की उम्मीद रखते हैं। हालांकि, इस दुखद घड़ी में कुछ अतिवादी तत्व इस स्थिति का फायदा उठाने की कोशिश कर रहे हैं, साम्प्रदायिक नफरत फैलाने, समाज में दरार डालने और हिंसा को भड़काने का प्रयास कर रहे हैं। 

मुसलमानों के खिलाफ धमकियां, उनके जीवन पर हमले, और नफरत फैलाने वाली बयानबाजी ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों जगह फैल रही हैं, जिससे डर और अविश्वास का माहौल बन रहा है। ऐसे उथल-पुथल भरे समय में, यह अनिवार्य है कि राज्य, नागरिक समाज, और जिम्मेदार नागरिक मिलकर यह सुनिश्चित करें कि न्याय मिले और हिंसा या साम्प्रदायिक तनाव में वृद्धि न हो।


1. सरकार और कानून प्रवर्तन की भूमिका

a) त्वरित और निष्पक्ष जांच:
सरकार को हत्या की घटना की त्वरित और निष्पक्ष जांच सुनिश्चित करनी चाहिए। अपराधियों की पहचान हो और उन्हें कानूनी प्रक्रिया के तहत सजा दिलवाई जाए। कानून प्रवर्तन एजेंसियों को जांच में पारदर्शिता सुनिश्चित करनी चाहिए ताकि किसी प्रकार का पक्षपाती या अन्यायपूर्ण आरोप न लगे।

b) हिंसा भड़काने के खिलाफ कार्रवाई:
जो अतिवादी व्यक्ति और समूह मुसलमानों के खिलाफ हिंसा को खुलेआम उकसा रहे हैं, उन्हें तुरंत गिरफ्तार किया जाए। इसमें नफरत फैलाने वाली भाषणों, हिंसा भड़काने और साम्प्रदायिक बयानों के खिलाफ कार्रवाई शामिल होनी चाहिए। कोई भी, चाहे वह किसी भी पद पर हो, अपनी पब्लिक प्लेटफार्म का इस्तेमाल नफरत फैलाने या हिंसा उकसाने के लिए नहीं कर सकता।

c) नेताओं द्वारा सार्वजनिक निंदा:
सभी समुदायों के धार्मिक और राजनीतिक नेताओं को हिंसा और नफरत फैलाने वाली भाषणों की स्पष्ट रूप से निंदा करनी चाहिए। शांति और एकता की आवाज़ को विभाजन और नफरत की आवाज़ों से ऊपर उठना चाहिए।

d) मीडिया की जिम्मेदारी:
मीडिया को इस संवेदनशील समय में जिम्मेदारी से काम करना चाहिए। सनसनीखेज रिपोर्टिंग से बचना चाहिए और रिपोर्टिंग को संतुलित और तथ्य-आधारित रखना चाहिए। मीडिया को अफवाहों को बढ़ाने या साम्प्रदायिक तनाव को बढ़ाने के बजाय समाज को स्थिर बनाने वाली शक्ति बननी चाहिए।

e) सोशल मीडिया नियमावली:
अतिवादी तत्व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का उपयोग नफरत फैलाने और हिंसा की धमकियां देने के लिए करते हैं। सरकार को सोशल मीडिया कंपनियों के साथ मिलकर यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उकसाने वाली सामग्री, नफरत फैलाने वाली भाषाएँ और हिंसा की धमकियां तुरंत हटाई जाएं। सोशल मीडिया को उकसावे का मंच नहीं बनने देना चाहिए।


भाग 2: धार्मिक ग्रंथों में हिंसा के आरोपों का जवाब

हाल की दुखद घटनाओं ने हमारे देश को गहरे शोक में डुबो दिया है और इस समय लोगों के मन में सवाल उठ रहे हैं। हालाँकि, जब हम इन संवेदनशील मुद्दों को संबोधित करते हैं, तो यह महत्वपूर्ण है कि हम इन्हें समझदारी, सहानुभूति और अपने धार्मिक ग्रंथों की सही समझ के साथ देखें।

हाल ही में एक आरोप उभर कर आया है कि क़ुरान गैर-मुसलमानों के खिलाफ हिंसा सिखाता है, खासकर सूरह तौबा 9:5 को उद्धृत करके। यह दावा किया गया है कि क़ुरान के ऐसे उपदेशों के कारण ही यह हिंसा हुई और भविष्य में भारत में गैर-मुसलमानों के साथ ऐसा ही होगा। मैं इस आरोप का जवाब दूंगा और इन आयतों के असल अर्थ को स्पष्ट करूंगा। इसके साथ ही, मैं यह भी दिखाऊंगा कि अन्य धार्मिक ग्रंथों में भी इसी प्रकार की आयतें हैं, जिनमें हिंसा का उल्लेख विशिष्ट संदर्भ में किया गया है।


सूरह तौबा (9:5) का संदर्भ:

सूरह तौबा 9:5 को अक्सर इस तरह उद्धृत किया जाता है कि इस्लाम गैर-मुसलमानों को मारने की बात करता है। हालांकि, जब इस आयत को उसके ऐतिहासिक संदर्भ में समझा जाता है, तो यह साफ़ हो जाता है कि यह व्याख्या गलत है।

ऐतिहासिक संदर्भ:

  • इस्लाम के शुरुआती वर्षों में (7वीं सदी में), मुसलमानों को क़ुरैश और अन्य शत्रुतापूर्ण क़बीलों द्वारा उत्पीड़ित किया गया था।

  • मुसलमानों ने मदीना में शरण ली थी ताकि वे इस उत्पीड़न से बच सकें, लेकिन क़ुरैश और अन्य शत्रु क़बीले लगातार उन पर हमले करते रहे थे।

  • हुडैबिया की संधि (628 ईस्वी) मुसलमानों और क़ुरैश के बीच शांति समझौता था, जिसे क़ुरैश और उनके सहयोगियों ने तोड़ दिया और मुसलमानों के कारवां पर हमला किया।

  • सूरह तौबा 9:5 इन संघर्षों के बाद प्रकट हुई थी। यह आयत किसी सामान्य आदेश के रूप में नहीं थी, बल्कि यह उन क़बीलों के खिलाफ थी जिन्होंने बार-बार शांति संधियों का उल्लंघन किया और मुसलमानों पर हमले किए थे। यह आयत मुसलमानों के आत्मरक्षा का संदर्भ देती है।

आयत में लिखा है: "और जब पवित्र माह समाप्त हो जाएं, तो उन मुशरिकों को जहाँ पाओ, मार डालो और उन्हें बंदी बना लो..." (सूरह तौबा 9:5)

मुख्य बिंदु:
यह आयत एक विशिष्ट ऐतिहासिक संदर्भ में दी गई थी, जहाँ मुसलमानों को आत्मरक्षा के तहत यह निर्देश दिया गया था, न कि सभी गैर-मुसलमानों को मारने का आदेश। इस आयत में शांति की भी संभावना दी गई है: अगर आक्रमणकारी पछताए और इस्लाम के सिद्धांतों को स्वीकार करें, तो उन्हें सुरक्षित रहने दिया जाएगा।


क़ुरान 9:5 का सही संदर्भ एक वास्तविक उदाहरण से समझें

आइए इसे एक आधुनिक उदाहरण से समझते हैं:

मान लीजिए पुलिस एक क्षेत्र में आतंकवादियों को ढूंढ रही है, जो कई हिंसक हमलों के लिए जिम्मेदार हैं। पुलिस कमांडर, जो स्थिति की गंभीरता को जानता है, अपनी टीम को आदेश देता है: "इन आतंकवादियों को जहां भी पाओ, मार डालो।"

अब, यदि कोई व्यक्ति इस आदेश को संदर्भ से बाहर ले जाकर कहे, "पुलिस कमांडर ने उस क्षेत्र के सभी लोगों को मारने का आदेश दिया," तो यह आदेश की गलत व्याख्या होगी। संदर्भ से यह स्पष्ट है कि आदेश सभी लोगों को मारने का नहीं था, बल्कि उन आतंकवादियों को निशाना बनाने का था, जो निर्दोष लोगों को नुकसान पहुँचा रहे थे।

इसी तरह, सूरह तौबा 9:5 को भी संदर्भ में समझना जरूरी है। यह आयत किसी भी गैर-मुसलमान को मारने का आदेश नहीं देती, बल्कि उन आक्रमणकारियों के खिलाफ है जो मुसलमानों पर लगातार हमले कर रहे थे। यह आत्मरक्षा का आदेश है, न कि सभी गैर-मुसलमानों के खिलाफ हिंसा का।


भगवद गीता और महाभारत में हिंसा:

इसी तरह के आरोप धार्मिक ग्रंथों में हिंसा के बारे में अन्य स्थानों पर भी मिलते हैं। भगवद गीता और महाभारत में भी हिंसा का उल्लेख किया गया है, लेकिन यह संदर्भ में किया गया है—न्याय, धर्म और कर्तव्य की रक्षा के लिए।

भगवद गीता – युद्ध और कर्तव्य:
भगवद गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को युद्ध के कर्तव्य के बारे में बताते हैं, जो कभी-कभी धर्म की रक्षा के लिए आवश्यक होता है।

  • "युद्ध के लिए कुछ भी अधिक सम्मानजनक नहीं है, जब धर्म की रक्षा की आवश्यकता हो।" (भगवद गीता 2.31)

महाभारत – हिंसा अंतिम उपाय के रूप में:
महाभारत में युद्ध को अंतिम उपाय के रूप में दिखाया गया है, जिसे केवल न्याय की रक्षा के लिए किया जाना चाहिए।

  • "युद्ध आखिरी उपाय है, और जो इसमें भाग लेते हैं, उन्हें अपने लोगों की रक्षा के लिए यह करना चाहिए, न कि घृणा या प्रतिशोध के लिए।" (महाभारत, शांति पर्व, अध्याय 35)

मुख्य बिंदु:
भगवद गीता और महाभारत दोनों में हिंसा को केवल न्याय की रक्षा और धर्म की स्थापना के लिए सही ठहराया गया है, न कि व्यक्तिगत लाभ या घृणा के लिए।


निष्कर्ष:

क़ुरान, भगवद गीता और महाभारत सभी धार्मिक ग्रंथों में हिंसा का उल्लेख होता है, लेकिन इन ग्रंथों में हिंसा का उपयोग केवल धर्म, न्याय, और मानवता की रक्षा के लिए किया जाता है। हिंसा को कभी भी महिमामंडित नहीं किया जाता, और युद्ध केवल तभी लड़ा जाता है जब अन्य शांति विकल्प समाप्त हो जाएं। किसी भी धार्मिक ग्रंथ की आयतों का गलत अर्थ निकालकर हिंसा या घृणा को बढ़ावा देना न केवल भ्रामक है, बल्कि यह समाज के लिए खतरनाक भी हो सकता है।

सभी धार्मिक ग्रंथों का असल उद्देश्य शांति, न्याय और मानवता का प्रचार करना है। वे हमें यह याद दिलाते हैं कि वास्तविक धर्म और सभी धर्मों का संदेश सभी इंसानों के प्रति सहानुभूति, सम्मान और प्यार है।


स्वामी लक्ष्मीशंकराचार्य जी का समझने का सफर:

स्वामी लक्ष्मीशंकराचार्य जी एक समय क़ुरान के खिलाफ थे और मानते थे कि क़ुरान हिंसा सिखाता है। लेकिन, क़ुरान और पैगंबर मुहम्मद (PBUH) के जीवन को गहराई से अध्ययन करने के बाद उन्होंने महसूस किया कि क़ुरान शांति, न्याय और मानवता का संदेश देता है। जो आयतें हिंसा को प्रेरित करने के रूप में उद्धृत की जाती थीं, वे वास्तव में आत्मरक्षा और उत्पीड़न के खिलाफ थीं।

उन्होंने अपनी किताब "इस्लाम - आतंक या आदर्श"  https://thelogicalislam.org/wp-content/uploads/2020/08/Islam-Aatank-ya-Aadarsh.pdf  में इसे विस्तार से समझाया। मैं सभी सत्य की खोज करने वाले लोगों से अपील करता हूँ कि इस पुस्तक को पढ़ें और इस्लाम और उसके शांति संदेश को समझें।

https://thelogicalislam.org/wp-content/uploads/2020/08/Muhammad-Prophet-of-Islam-Ramakrishna-Rao.pdf


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