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मुक्त इच्छा (Free Will): अल्लाह की एक ख़ामोश लेकिन ताक़तवर निशानी (आयत)

  मुक्त इच्छा (Free Will): अल्लाह की एक ख़ामोश लेकिन ताक़तवर निशानी (आयत) खुर्शीद इमाम ------------------------------------------------------------------------------------ 1. क़ुरआन 41:53 में बहुत ही ख़ूबसूरती से बताया गया है कि अल्लाह अपनी निशानियाँ (अरबी में "आयत") बाहरी दुनिया (यानि ब्रह्मांड और उससे आगे) में और हर इंसान के अंदर भी दिखाएगा, 2. मुक्त इच्छा (Free Will) - प्रकृति के नियमों से परे है  "यह इकलौती ऐसी चीज़ है जहाँ एक जैसे हालात में भी अलग-अलग नतीजे निकल सकते हैं।" जबकि: फिज़िक्स या केमिस्ट्री मेंएक जैसे इनपुट (स्थितियाँ) से हमेशा एक जैसा आउटपुट (नतीजा) ही निकलता है। लेकिन Free Will में: दो इंसान एक ही जैसी स्थिति में बिल्कुल अलग फ़ैसला कर सकते हैं। एक ही इंसान एक बार कुछ और चुने और अगली बार कुछ और। यह नैचुरल लॉ (natural laws)को नहीं मानता, इसीलिए यह एक "meta-natural" यानी प्राकृतिक नियमों से ऊपर की चीज़ है — एक तरह का चमत्कार। A. विज्ञान में तयशुदा नियम (Fix Outputs for Same Inputs) Physics F = ma (न्यूटन का नियम):एक ही मास और फोर्स से हमेशा...

इस्लाम पर बात करने का हक किसको है?

आप किस मदरसे से पढ़े हैं? लेखक:  खुर्शीद  इमाम समस्या: आजकल कई मुस्लिम समाजों में ये आम चलन है कि जब कोई ऐसा व्यक्ति जो किसी मदरसे से नहीं पढ़ा होता, इस्लाम पर बात करता है—खासकर जब वह गलतफ़हमियाँ दूर करता है, अंधविश्वास या रूढ़ियों पर सवाल उठाता है, या धर्म की गलत व्याख्या को सुधारने की कोशिश करता है—तो उससे तुरंत पूछा जाता है: "क्या आप आलिम हैं?" "क्या आपने किसी मदरसे में पढ़ाई की है?" "आपको इस्लाम पर बोलने का हक किसने दिया?" अक्सर ये सवाल इसलिए नहीं पूछे जाते कि उसने कुछ गलत कहा है, बल्कि इसलिए पूछे जाते हैं क्योंकि वह उस सोच को चुनौती दे रहा होता है जो वर्षों से बिना सोच-समझ के चली आ रही है। फिर कुछ धार्मिक लोग आम जनता को यह समझाते हैं कि जब तक कोई व्यक्ति मदरसे से "आलिम" न बना हो, उसे इस्लाम पर बात करने का कोई हक नहीं—even अगर वह कुरआन और हदीस की बात ही क्यों न कर रहा हो। असलियत: इस्लाम किसी खास वर्ग या मदरसे की जागीर नहीं है। कुरआन हर मुसलमान से कहता है: "यह एक बरकत वाली किताब है जो हमने आपको दी है ताकि लोग इसकी आयतों ...

क्या पैगंबर इब्राहिम को आग में फेंका गया था?

क्या पैगंबर इब्राहिम (अब्दुल्लाह अलैहिस्सलाम) को आग में फेंका गया था? — रूपक या ऐतिहासिक चमत्कार? खुरशीद इमाम --------------------------------------------------------------- पैगंबर इब्राहिम (अलैहिस्सलाम) और आग की घटना कुरआन की सबसे प्रभावशाली घटनाओं में से एक है। यह अक्सर इस्लामी सिद्धांत में दिव्य शक्ति और सच के साथ खड़े होने वाले व्यक्तियों की सुरक्षा के रूप में उद्धृत होती है। लेकिन क्या यह आग वाकई थी? क्या इब्राहिम सचमुच उसमें फेंके गए? या यह सिर्फ एक रूपक था? आइए कुरआन के आयतों पर नज़र डालें और इस चमत्कार के गहरे अर्थ को समझने की कोशिश करें।  🌟 सूरह अल‑अंबिया (21:68–69) “उन्होंने कहा, ‘उसे जला डालो और अपने देवताओं की सहायता करो—अगर तुम कुछ कर ही सकते हो!’ “फिर हमने कहा: ‘हे आग! इब्राहिम पर शांति और ठंडक बनकर रहो।’” यहाँ स्पष्ट है कि लोग इब्राहिम को जलाने की बात कर रहे हैं। फिर अल्लाह आग से बोलते हैं कि वह उसे नुकसान न पहुंचाए। हालांकि आयत सीधे नहीं कहती “उन्होंने उसे आग में फेंका,” परंतु आग को दिए गए आदेश से यह संकेत मिलता है कि इब्राहिम के आग का संपर्क हो गया होगा...

ईश्वर की वाणी : सूरह अन-निसा, आयत 82 पर एक चिंतन

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ईश्वर की वाणी : सूरह अन-निसा, आयत 82 पर एक चिंतन खुर्शीद इमाम ----------------------------------------------- सूरह अन-निसा, अध्याय 4, आयत 82 में कहा गया है : "क्या वे कुरआन पर ध्यानपूर्वक विचार नहीं करते? अगर यह अल्लाह के अलावा किसी और की ओर से होता, तो वे इसमें बहुत से विरोधाभास (contradictions) पाते।" أَفَلَا يَتَدَبَّرُونَ الْقُرْآنَ ۚ وَلَوْ كَانَ مِنْ عِندِ غَيْرِ اللَّهِ لَوَجَدُوا فِيهِ اخْتِلَافًا كَثِيرًا यह आयत एक अद्भुत दावा पेश करती है — कि कुरआन, जो कि दिव्य (ईश्वर की ओर से) है, उसमें कोई भी विरोधाभास नहीं है। यहां "विरोधाभास" के लिए अरबी शब्द "इख़्तिलाफ़न (اختلافًا)" प्रयोग हुआ है। जो बात वाक़ई हैरान करने वाली है, वो यह है कि यह शब्द "इख़्तिलाफ़न" पूरे कुरआन में केवल एक ही बार आता है — और वो भी ठीक इसी आयत में। थोड़ा ठहरकर इस पर सोचिए। कुरआन अपने पाठक को चुनौती देता है कि अगर यह किसी इंसान का लिखा हुआ होता, तो इसमें अनेक विरोधाभास होते। लेकिन देखिए, "विरोधाभास" शब्द को बार-बार नहीं दोहराया गया। यह एकदम सही जगह, सही संद...

हाल की दुखद घटना, धार्मिक ग्रंथों में हिंसा और सोशल मीडिया की भूमिका

  भाग 1: हाल की दुखद घटना और सोशल मीडिया की भूमिका हाल की हत्या की घटना ने पूरे देश को झकझोर दिया है और सभी में ग़म का माहौल है। इस समय में लोग स्वाभाविक रूप से सरकार, कानून प्रवर्तन और न्याय व्यवस्था से अपराधियों को न्याय के दायरे में लाने की उम्मीद रखते हैं। हालांकि, इस दुखद घड़ी में कुछ अतिवादी तत्व इस स्थिति का फायदा उठाने की कोशिश कर रहे हैं, साम्प्रदायिक नफरत फैलाने, समाज में दरार डालने और हिंसा को भड़काने का प्रयास कर रहे हैं।  मुसलमानों के खिलाफ धमकियां, उनके जीवन पर हमले, और नफरत फैलाने वाली बयानबाजी ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों जगह फैल रही हैं, जिससे डर और अविश्वास का माहौल बन रहा है। ऐसे उथल-पुथल भरे समय में, यह अनिवार्य है कि राज्य, नागरिक समाज, और जिम्मेदार नागरिक मिलकर यह सुनिश्चित करें कि न्याय मिले और हिंसा या साम्प्रदायिक तनाव में वृद्धि न हो। 1. सरकार और कानून प्रवर्तन की भूमिका a) त्वरित और निष्पक्ष जांच: सरकार को हत्या की घटना की त्वरित और निष्पक्ष जांच सुनिश्चित करनी चाहिए। अपराधियों की पहचान हो और उन्हें कानूनी प्रक्रिया के तहत सजा दिलवाई जाए। कानून प्रवर्तन ए...

कमज़ोर से ताक़तवर बनो: मुस्लिम समाज के लिए एक ज़रूरी संदेश

  कमज़ोर से ताक़तवर बनो: मुस्लिम समाज के लिए एक ज़रूरी संदेश खुर्शीद इमाम ******************************************************** आज पूरी मुस्लिम दुनिया संकट में है — अफ़रा-तफ़री, बेबसी, मायूसी और खत्म न होने वाला दुख। भारत से लेकर फिलिस्तीन तक मुसलमानों की हालत बेहद दर्दनाक है। इसकी सबसे बड़ी वजह? कमज़ोरी । इस दुनिया में जहाँ ताक़त की चलती है, वहाँ हम पीछे रह गए। जब ताक़त हासिल करने का समय था, हम दूसरी बातों में उलझे रहे। इस्लामी इतिहास की तीन बड़ी ग़लतियाँ यही थीं: हदीस को क़ुरान से ऊपर रखना दीन और दुनिया को अलग करना उलमा की  अंधभक्ति  करना हमें बार-बार कहा गया: "तीन तरह की दुआ हमेशा क़बूल होती है..." लेकिन अरबों मुसलमानों की दुआएं भी क्या ग़ज़ा का कत्लेआम रोक पाईं? सोचिए! क्या हम इस्लाम को सही तरीके से समझ पाए हैं? इन ग़लतियों ने हमें अंदर से धीरे-धीरे कमज़ोर कर दिया। और आज भी कुछ मौलवी लोग इन्हीं छोटे मुद्दों में उलझे हुए हैं — खलीफा कौन बेहतर था, अक़ीदा-अक़ीदा की बहस, पहनावे और आदतों पर बातें — जब कि उम्मत की हालत बहुत बुरी है। दूसरी ओर कुछ तथाकथित ...

भारतीय धार्मिक साहित्य का उर्दू और फारसी में अनुवाद और उससे जुड़े आरोप

  भारतीय धार्मिक साहित्य का उर्दू और फारसी में अनुवाद और उससे जुड़े आरोप खुर्शीद इमाम भारतीय धार्मिक साहित्य का उर्दू और फारसी में अनुवाद और उससे जुड़े आरोप धार्मिक ग्रंथों का अनुवाद इतिहास में हमेशा से होता आया है। यह अक्सर समझने, शासन करने या संस्कृतियों को जोड़ने के लिए किया जाता था। भारत में, मुस्लिम शासकों ने मध्यकाल में हिंदू धर्मग्रंथों का फारसी और बाद में उर्दू में अनुवाद करवाया। इस पर आरोप लगाया गया कि इन ग्रंथों को गलत तरीके से अनुवादित कर हिंदू विश्वासों को तोड़ने की कोशिश की गई। यह लेख इन आरोपों की पड़ताल करता है और ऐतिहासिक उदाहरणों के आधार पर यह साबित करता है कि अनुवाद में गलतियाँ जानबूझकर नहीं की गईं और इससे हिंदू धर्म की बुनियाद पर कोई असर नहीं पड़ा। धार्मिक ग्रंथों के अनुवाद के ऐतिहासिक उदाहरण 1. अब्बासी खिलाफत: यूनानी ग्रंथों का अरबी में अनुवाद आठवीं से दसवीं सदी में अब्बासी खिलाफत ने यूनानी दार्शनिक और वैज्ञानिक ग्रंथों को अरबी में अनुवादित किया। बगदाद के "हाउस ऑफ़ विज़डम" में विद्वानों ने अरस्तू और प्लेटो जैसे विचारकों के कार्यों को इस्लामी विचारधारा में ...