क्या इस्लाम-धर्म त्यागनें वालों को मृत्यू -दंण्ड देता है?
क्या इस्लाम-धर्म त्यागनें वालों को मृत्यू -दंण्ड देता है?
खुर्शीद इमाम
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A. अमन (शांति) के धर्म में आपका स्वागत है?
“इस्लाम में स्वागत है - शांति (अमन) का धर्म!!!”
“शांति (अमन), इंसाफ (न्याय) और इंसानियत (मानवता) इस्लाम की पहचान हैं!!!”
“धर्म (दीन) में कोई ज़बरदस्ती नहीं!!!!”
“इस्लाम ईश्वर का धर्म है!!!!”
“रसूल अल्लाह स० रहमतुल्लिलआलमीन [समस्त संसार (जहानों) के लिए रहमत] हैं।”
…… रुकिए……एक और शिक्षा पर गौर करें जिसे इस्लाम की शिक्षा बताया जाता है…
…… अगर ..आप.. इस्लाम.. को.. छोड़ना.. चाहते.. हो... तो……. आप मृत्युदंड के भागी हो!
क्या? क्या आपको समझ आया?आपका सर कलम कर दिया जाएगा अगर आप ने इस्लाम को छोड़ा .. जानते हो क्यों?क्योंकि इस्लाम कहता है कि मुर्तद (धर्मत्यागी) को मार दो .. मार दो ..मार दो.!
“इस्लाम में स्वागत है - शांति (अमन) का धर्म!!!”
“शांति (अमन), इंसाफ (न्याय) और इंसानियत (मानवता) इस्लाम की पहचान हैं!!!”
“धर्म (दीन) में कोई ज़बरदस्ती नहीं!!!!”
“इस्लाम ईश्वर का धर्म है!!!!”
“रसूल अल्लाह स० रहमतुल्लिलआलमीन [समस्त संसार (जहानों) के लिए रहमत] हैं।”
…… रुकिए……एक और शिक्षा पर गौर करें जिसे इस्लाम की शिक्षा बताया जाता है…
…… अगर ..आप.. इस्लाम.. को.. छोड़ना.. चाहते.. हो... तो……. आप मृत्युदंड के भागी हो!
क्या? क्या आपको समझ आया?आपका सर कलम कर दिया जाएगा अगर आप ने इस्लाम को छोड़ा .. जानते हो क्यों?क्योंकि इस्लाम कहता है कि मुर्तद (धर्मत्यागी) को मार दो .. मार दो ..मार दो.!
B. मुद्दा क्या है? धर्मत्यागी (मुर्तद) को मृत्युदंड?
1. यह मुद्दा प्रासंगिक क्यों है?
• एक इंसान जो एक धर्म या दीन को छोड़ता है / त्यागता है, धर्मत्यागी (मुर्तद) कहलाता है।
• इस्लामिक संदर्भ में, अगर एक मुस्लिम,नास्तिक (मुनकिरीन ए खुदा) बन जाए या दूसरे धर्म को मानना शुरू कर दे या बस इस्लाम को छोड़ दे वो मुर्तद कहलाता है।
• अक्सर (ज़्यादातर) मुसलमानों की जो खौफनाक (भयावह) सोच है वो ये है कि इस्लाम मुर्तद (धर्मत्यागी) को मृत्युदंड देने की शिक्षा देता है।
• दिलचस्प बात ये है कि : यह मुद्दा इतना इसलिए नहीं उठा हुआ है कि कई मुस्लिम मुर्तद (धर्मत्यागी) हो गए हों; बल्कि गैरमुस्लिमों और कुछ मुस्लिमों के राग अलापने और तूल देने की वजह सेउठा हुआ है।
आम गैर मुस्लिम इस्लाम से यह सोचकर नफ़रत करते हैं कि कोई कैसे विश्वास कर सकता है कि ईश्वर धर्मत्यागी (मुर्तद) को मृत्युदंड देने पर ज़ोर देता है।इस्लाम विरोधी तत्व मुस्लिमों का,क़ुरआन का और मुहम्मद साहब स० का यह कहते हुए मज़ाक उड़ाते हैं और चोट करते हुए ये कहते हैं कि “क्या ये शांति (अमन) का धर्म है| क्या सोच की आज़ादी हैइस्लाम में? इस्लाम क्रूर और अमानवीय (गैर इंसानी) धर्म है।क्यों एक इंसान एक ऐसे धर्म को स्वीकार करे जो एकतरफा रास्ता है जिसमें तुम जीवित (ज़िंदा) जातो सकते हो लेकिन जब तुम उसे छोड़ना चाहो तो तुम्हें मरना ही पड़ेगा?"
• आजकल के दौर में; शिया सुन्नी और फिरकों के नाम पर काटा मारी इसी (धर्मत्यागी को मृत्युदंड) अवधारणा की बुनियाद पर चल रही है, समीकरणें साफ है :
समीकरण ‘अ’ - एक सुन्नी आलिम कुछ वजहों के रहते शिया को मुर्तद (धर्मत्यागी) घोषित कर देताहै। (ज़्यादातर मूर्खतापूर्ण वजहें होती हैं ).
समीकरण ‘ब’ - मुर्तद (धर्मत्यागी)को मृत्युदंड देना चाहिए
समीकरण ‘अ’ और ‘ब’ को मिलाने पर - शिया को मार देना चाहिए और ये "इस्लाम की शिक्षा" है। साबित हो गया।
2. रुकिए!! एकतरफा मत बनिए। ईमानदार और इंसाफपसंद बनिए।
• इस्लाम धर्मत्यागी के लिए मृत्युदंड की शिक्षा देता है या नहीं - हम इसे बाद में देखेंगे; लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न ये है कि –हमें किसे खुश (प्रसन्न) करना है? मुस्लिमों को? मौलवियों को? गैरमुस्लिमों को? इस्लाम विरोधियोंको? या अल्लाह को जो सर्वशक्तिमान ईश्वर है? अगर आपका जवाब अल्लाह है तो आपको तलाश करना पड़ेगा कि अल्लाह या उस सर्वशक्तिमान ईश्वर ने इस विषय में क्या कहा है।
• अगर ईश्वर आपको किसी विषय पर रास्ता दिखाए तो क्या आप तब भी उसी तरफ चलोगे जिस तरफ चल रहे थे? क्या आप अपने कुछ मौलवियों को अल्लाह से आगे रखोगे?
• "में वो करूंगा जो मैंने अपने बाप दादा को करते हुए देखा है" –इस सोच को अल्लाह ने खारिज कर दिया है अगर ये ईश्वर की शिक्षा के खिलाफ (विरुद्ध) जाए तो!
और जब उन से कहा जाता है:"अल्लाह ने जो कुछ उतारा है उस का अनुसरण करो।" तो कहते हैं," नहीं बल्कि हम तो उस का अनुसरण करेंगे जिस पर हम ने अपने बाप दादा को पाया है।" क्या उस दशा में भी जबकि उन के बाप दादा कुछ भी बुद्धि से काम न लेते रहे हों और न सीधेमार्ग पर रहे हों? (क़ुरआन,सूरह अल-बकरा 2:170)
• और जब उन से कहा जाता है : कि उस चीज़ की ओर आओ जो अल्लाह ने अवतरित की है और रसूल की ओर, तो वे कहते हैं, हमारे लिए तो वही काफ़ी है, जिस पर हम ने अपने बापदादा को
• और जब उन से कहा जाता है : कि उस चीज़ की ओर आओ जो अल्लाह ने अवतरित की है और रसूल की ओर, तो वे कहते हैं, हमारे लिए तो वही काफ़ी है, जिस पर हम ने अपने बापदादा को
पाया है।" क्या यद्यपि उन के बाप दादा कुछ भी न जानते रहे हों और न सीधे मार्ग पर रहे हो? (क़ुरआन,सूरह अल-माईदा 5:104)
C. गलतफहमी और उसके कारण
मुर्तद (धर्मत्यागी) के बारे में मशहूर मिथक ये है कि “धर्मत्यागी (मुर्तद) को मार देना चाहिए”।
सबूत : लोग कुछ हदीसें बयान करते हैं जिससे वो ये निष्कर्ष निकालते हैं कि इस्लाम मुर्तद (धर्मत्यागी) को मृत्युदंड देने की शिक्षा देता है| अक्सर कहा जाने वाला कथन ये है कि रसूल अल्लाहस० नेकहा कि जो भी धर्म परिवर्तन करे या छोड़े – उसे मार दो।
1. इस गलतफहमी के कारण
फिर से : ज़्यादातर मुस्लिमों द्वारा अक्सर दोहराई जाने वाली गलती- "किसी मुद्दे को क़ुरआन के नियमों (उसूलों) पर नहीं समझना"| जब लोग क़ुरआन की तरफ गौर नहीं करते, जो अल्लाह ने नाज़िलकिया है (उतारा है) उस का विश्लेषण नहीं करते, इस पर गौरो फिक्र नहीं करते कि क़ुरआन ने क्या रास्ता दिखाया है और सिर्फ अलग अलग हदीसों की बुनियाद पर सीधे निष्कर्ष पर पोहोचने की कोशिश करते हैं तो वो गलती करतेही हैं।
2. बुनियादी (मूलभूत) सिद्धांतों पर पुनः गौर
“रमज़ान का महीना जिस में कुरआन उतारा गया लोगों के मार्गदर्शन के लिए, और मार्गदर्शन और सत्य-असत्य के अन्तर के प्रमाणों के साथ ……." [क़ुरआन, सूरह अल बकरा 2:185] कृपया क़ुरआन के उद्देश्यों को नोट करें।
1. ये पूरी मानवता (इंसानियत) के लिए है।क़ुरआन किसी एक संप्रदाय, धर्म, वर्ग विशेष या जाति की संपत्ति नहीं है।
2. क़ुरआन का उद्देश्य मार्गदर्शन (हिदायत) है। हमें क़ुरआन से मार्गदर्शन तलाश करना चाहिए।
3. क़ुरआन कसौटी है| इसका मतलब किसी भी मामले में क़ुरआन की बात आखिरी बात होगी| जो क़ुरआन तय करेगा वही आखिरी फैसला होगा| मुसलमान क़ुरआन को अल्लाह का कलाम (ईश्वर की बात) कहते हैं लेकिन जब बात यकीन (विश्वास) और कर्म (अमल) की आती है तो वो बुरी तरह चूकते हुए महसूस होते हैं।क़ुरआन कहता है कि फैसला तो सिर्फ उसी से करा जाएगा जो उस सर्वशक्तिमान ईश्वर (अल्लाह) नेनाज़िल किया है (उतारा है)।
C. गलतफहमी और उसके कारण
मुर्तद (धर्मत्यागी) के बारे में मशहूर मिथक ये है कि “धर्मत्यागी (मुर्तद) को मार देना चाहिए”।
सबूत : लोग कुछ हदीसें बयान करते हैं जिससे वो ये निष्कर्ष निकालते हैं कि इस्लाम मुर्तद (धर्मत्यागी) को मृत्युदंड देने की शिक्षा देता है| अक्सर कहा जाने वाला कथन ये है कि रसूल अल्लाहस० नेकहा कि जो भी धर्म परिवर्तन करे या छोड़े – उसे मार दो।
1. इस गलतफहमी के कारण
फिर से : ज़्यादातर मुस्लिमों द्वारा अक्सर दोहराई जाने वाली गलती- "किसी मुद्दे को क़ुरआन के नियमों (उसूलों) पर नहीं समझना"| जब लोग क़ुरआन की तरफ गौर नहीं करते, जो अल्लाह ने नाज़िलकिया है (उतारा है) उस का विश्लेषण नहीं करते, इस पर गौरो फिक्र नहीं करते कि क़ुरआन ने क्या रास्ता दिखाया है और सिर्फ अलग अलग हदीसों की बुनियाद पर सीधे निष्कर्ष पर पोहोचने की कोशिश करते हैं तो वो गलती करतेही हैं।
2. बुनियादी (मूलभूत) सिद्धांतों पर पुनः गौर
“रमज़ान का महीना जिस में कुरआन उतारा गया लोगों के मार्गदर्शन के लिए, और मार्गदर्शन और सत्य-असत्य के अन्तर के प्रमाणों के साथ ……." [क़ुरआन, सूरह अल बकरा 2:185] कृपया क़ुरआन के उद्देश्यों को नोट करें।
1. ये पूरी मानवता (इंसानियत) के लिए है।क़ुरआन किसी एक संप्रदाय, धर्म, वर्ग विशेष या जाति की संपत्ति नहीं है।
2. क़ुरआन का उद्देश्य मार्गदर्शन (हिदायत) है। हमें क़ुरआन से मार्गदर्शन तलाश करना चाहिए।
3. क़ुरआन कसौटी है| इसका मतलब किसी भी मामले में क़ुरआन की बात आखिरी बात होगी| जो क़ुरआन तय करेगा वही आखिरी फैसला होगा| मुसलमान क़ुरआन को अल्लाह का कलाम (ईश्वर की बात) कहते हैं लेकिन जब बात यकीन (विश्वास) और कर्म (अमल) की आती है तो वो बुरी तरह चूकते हुए महसूस होते हैं।क़ुरआन कहता है कि फैसला तो सिर्फ उसी से करा जाएगा जो उस सर्वशक्तिमान ईश्वर (अल्लाह) नेनाज़िल किया है (उतारा है)।
……...जो लोग उस विधान के अनुसार फ़ैसला न करें, जिसे अल्लाह ने उतारा है, तो ऐसे ही लोग विधर्मी है। [क़ुरआन, सूरह अल-माईदा 5:44]
………..और जो लोग उस विधान के अनुसार फ़ैसला न करें, जिसे अल्लाह ने उतारा है जो ऐसे लोग अत्याचारी हैं। [क़ुरआन, सूरह अल-माईदा 5:45]
…और जो उस के अनुसार फ़ैसला न करें, जो अल्लाह ने उतारा है, तो ऐसे ही लोग उल्लंघनकारी हैं।[क़ुरआन, सूरह अल-माईदा 5:47]
..अतः लोगों के बीच तुम मामलों में वही फ़ैसला करना जो अल्लाह ने उतारा है और जो सत्य तुम्हारे पास आ चुका है उसे छोड़कर उन की इच्छाओं का पालन न करना.. [क़ुरआन, सूरह अल-माईदा 5:48]
और यह कि तुम उन के बीच वही फ़ैसला करो जो अल्लाह ने उतारा है और उन की इच्छाओं का पालन न करो…….. [क़ुरआन, सूरह अल-माईदा 5:49]
ऊपर दी हुई आयात इसे बिल्कुल साफ कर देती हैं कि अगर हम क़ुरआन के मार्गदर्शन (हिदायत) केविरूद्ध (खिलाफ) फैसला करते हैं तो यही कुफ्र/ज़ुल्म/नाफरमानी और बिल्कुल ग़लत है।देखें अल्लाह उससे फैसला करने पर कितना ज़ोर देता है जो उसने नाज़िल किया है (उतारा है)।
D. मुर्तद (धर्मत्यागी) के लिए बिल्कुल भी कोई दंड नहीं है
1.सर्वशक्तिमान ईश्वर (अल्लाह) और क़ुरआन ईमान लाने या इंकार करने की पूरी आज़ादी देते हैं।
"धर्म के विषय में कोई ज़बरदस्ती नहीं...." [क़ुरआन, सूरह अल-बकरा 2:256]
D. मुर्तद (धर्मत्यागी) के लिए बिल्कुल भी कोई दंड नहीं है
1.सर्वशक्तिमान ईश्वर (अल्लाह) और क़ुरआन ईमान लाने या इंकार करने की पूरी आज़ादी देते हैं।
"धर्म के विषय में कोई ज़बरदस्ती नहीं...." [क़ुरआन, सूरह अल-बकरा 2:256]
आप किसी को मुस्लिम बनाने के लिए बिल्कुल ज़बरदस्ती नहीं कर सकते| अगर आप कहते हैं कि धर्मत्यागी को मृत्युदंड दिया जाएगा तो इसका मतलब है आप उस पर धर्म को ना छोड़ने केलिए ज़बरदस्ती कर रहे हैं| आप उसे मौत से धमाका रहे हैं अगर वो इस्लाम छोड़े तो।
"कह दो,"वह सत्य है तुम्हारे रब की ओर से, तो अब जो कोई चाहे माने और जो चाहे इनकार कर दे।" [क़ुरआन, सूरह अल-कहफ 18:29]
"यदि तुम्हारा रब चाहता तो धरती में जितने लोग हैं वे सब के सब ईमान ले आते, फिर क्या तुम लोगों को विवश करोगे कि वे मोमिन हो जाएँ?" [क़ुरआन, सूरह यूनुस 10:99]
"कह दो,"वह सत्य है तुम्हारे रब की ओर से, तो अब जो कोई चाहे माने और जो चाहे इनकार कर दे।" [क़ुरआन, सूरह अल-कहफ 18:29]
"यदि तुम्हारा रब चाहता तो धरती में जितने लोग हैं वे सब के सब ईमान ले आते, फिर क्या तुम लोगों को विवश करोगे कि वे मोमिन हो जाएँ?" [क़ुरआन, सूरह यूनुस 10:99]
किसी को इस्लाम में लाने या ईमान लाने के लिए ज़बरदस्ती करना तर्कहीन, बेतुकी, बकवास और अन्यायपूर्ण बात है।किसी पर भी इस्लाम को मानने के लिए ना तो भौतिक और ना ही मानसिक ज़ोर डाला जा सकता है। ईमान अंदरूनी यकीन से आता है बाहरी ज़ोर ज़बरदस्ती से नहीं।
2. इस्लाम में किसी इंसान की हत्या (क़त्ल)
• जीवन अनमोल है। किसी एक मासूम को मारना पूरी मानवता (इंसानियत) को मार डालने के बराबर है। [क़ुरआन, सूरह अल-माईदा 5:32]
• शांति (अमन) और इंसान की ज़िंदगी की रक्षा (हिफ़ाज़त) के लिए क़ुरआन मृत्युदंड का विधान देताहै। लेकिन सिर्फ दो मामलों में:क़त्ल (मर्डर) करने और धरती (ज़मीन) पर बुराई (फसाद) फैलाने पर।[क़ुरआन, सूरह अल-माईदा 5:32]
3. क़ुरआन मुर्तद (धर्मत्यागी) को मृत्युदंड देने के खिलाफ है
क्या क़ुरआन ने धर्मत्याग का ज़िक्र किया है? “हां” – “कुछ जगहों पर”| तो किस सज़ा का विधान (कानून) है? “दुनियावी दंड तो बिल्कुल भी नहीं है, हर बार आखिरत (नरक) के दंड का ज़िक्र है। ”क़ुरआन कुछ जगहों पर धर्मत्याग के मुद्दे का ज़िक्र करता है।अल्लाह ने इस्लाम को छोड़ने वालों के बारे में बताया है पर अल्लाह ने एक बार भी ये नहीं कहा किऐसे लोगों को मृत्युदंड मिलना चाहिए। इन आयात पर गौर करें - क़ुरआन 2:217, 3:86-90, 4:137, 9:66,74, 16:106-109, 47:25-27
2. इस्लाम में किसी इंसान की हत्या (क़त्ल)
• जीवन अनमोल है। किसी एक मासूम को मारना पूरी मानवता (इंसानियत) को मार डालने के बराबर है। [क़ुरआन, सूरह अल-माईदा 5:32]
• शांति (अमन) और इंसान की ज़िंदगी की रक्षा (हिफ़ाज़त) के लिए क़ुरआन मृत्युदंड का विधान देताहै। लेकिन सिर्फ दो मामलों में:क़त्ल (मर्डर) करने और धरती (ज़मीन) पर बुराई (फसाद) फैलाने पर।[क़ुरआन, सूरह अल-माईदा 5:32]
3. क़ुरआन मुर्तद (धर्मत्यागी) को मृत्युदंड देने के खिलाफ है
क्या क़ुरआन ने धर्मत्याग का ज़िक्र किया है? “हां” – “कुछ जगहों पर”| तो किस सज़ा का विधान (कानून) है? “दुनियावी दंड तो बिल्कुल भी नहीं है, हर बार आखिरत (नरक) के दंड का ज़िक्र है। ”क़ुरआन कुछ जगहों पर धर्मत्याग के मुद्दे का ज़िक्र करता है।अल्लाह ने इस्लाम को छोड़ने वालों के बारे में बताया है पर अल्लाह ने एक बार भी ये नहीं कहा किऐसे लोगों को मृत्युदंड मिलना चाहिए। इन आयात पर गौर करें - क़ुरआन 2:217, 3:86-90, 4:137, 9:66,74, 16:106-109, 47:25-27
A)..और तुम में से जो कोई अपने दीन से फिर जाए और अविश्वासी होकर मरे, तो ऐसे ही लोग हैं जिन के कर्म दुनिया और आख़िरत में नष्ट हो गए, और वही आग (जहन्नम) में पड़ने वाले हैं, वे उसी में सदैव रहेंगे। [क़ुरआन, सूरह अल-बकरा 2:217]
B) अल्लाह उन लोगों को कैसे मार्ग दिखाएगा, जिन्होंने अपने ईमान के पश्चात अधर्म और इनकार की नीति अपनाई, जबकि वे स्वयं इस बात की गवाही दे चुके हैं कि यह रसूल सच्चा है और उन केपास स्पष्ट निशानियाँ भी आ चुकी हैं? अल्लाह अत्याचारी लोगों को मार्ग नहीं दिखायाकरता।
उन लोगों का बदला यही है कि उन पर अल्लाह और फ़रिश्तों और सारे मनुष्यों की लानत है।
इसी दशा में वे सदैव रहेंगे, न उन की यातना हल्की होगी और न उन्हें मुहलत ही दी जाएगी।
हाँ, जिन लोगों ने इस के पश्चात तौबा कर ली और अपनी नीति को सुधार लिया तो निस्संदेह अल्लाह बड़ा क्षमाशील, दयावान है| [क़ुरआन, सूरह आले इमरान 3:86-90]
C) रहे वे लोग जो ईमान लाए, फिर इनकार किया; फिर ईमान लाए, फिर इनकार किया; फिर इनकार की दशा में बढते चले गए तो अल्लाह उन्हें कदापि क्षमा नहीं करेगा और न उन्हें राह दिखएगा। [क़ुरआन, सूरह अल-निसा 4:137] कृपया नोट करें : यह आयत एक मुर्तद (धर्मत्यागी) के इस्लाम में वापस आने और फिर मुर्तद हो जाने का ज़िक्र करती है - अगर आप मुर्तद को मृत्युदंड दे देंगे तो उसे वापस इस्लाम में आने का मौका कैसे मिलेगा? तो ये आयत साफ तौर पर धर्मत्यागी (मुर्तद) को मृत्युदंड देने के खिलाफ है।
D)"बहाने न बनाओ, तुम ने अपने ईमान के पश्चात इनकार किया| यदि हम तुम्हारे कुछ लोगों को क्षमा भी कर दें तो भी कुछ लोगों को यातना देकर ही रहेंगे, क्योंकि वे अपराधी हैं।" [क़ुरआन, सूरह अल-तौबा 9:66]
B) अल्लाह उन लोगों को कैसे मार्ग दिखाएगा, जिन्होंने अपने ईमान के पश्चात अधर्म और इनकार की नीति अपनाई, जबकि वे स्वयं इस बात की गवाही दे चुके हैं कि यह रसूल सच्चा है और उन केपास स्पष्ट निशानियाँ भी आ चुकी हैं? अल्लाह अत्याचारी लोगों को मार्ग नहीं दिखायाकरता।
उन लोगों का बदला यही है कि उन पर अल्लाह और फ़रिश्तों और सारे मनुष्यों की लानत है।
इसी दशा में वे सदैव रहेंगे, न उन की यातना हल्की होगी और न उन्हें मुहलत ही दी जाएगी।
हाँ, जिन लोगों ने इस के पश्चात तौबा कर ली और अपनी नीति को सुधार लिया तो निस्संदेह अल्लाह बड़ा क्षमाशील, दयावान है| [क़ुरआन, सूरह आले इमरान 3:86-90]
C) रहे वे लोग जो ईमान लाए, फिर इनकार किया; फिर ईमान लाए, फिर इनकार किया; फिर इनकार की दशा में बढते चले गए तो अल्लाह उन्हें कदापि क्षमा नहीं करेगा और न उन्हें राह दिखएगा। [क़ुरआन, सूरह अल-निसा 4:137] कृपया नोट करें : यह आयत एक मुर्तद (धर्मत्यागी) के इस्लाम में वापस आने और फिर मुर्तद हो जाने का ज़िक्र करती है - अगर आप मुर्तद को मृत्युदंड दे देंगे तो उसे वापस इस्लाम में आने का मौका कैसे मिलेगा? तो ये आयत साफ तौर पर धर्मत्यागी (मुर्तद) को मृत्युदंड देने के खिलाफ है।
D)"बहाने न बनाओ, तुम ने अपने ईमान के पश्चात इनकार किया| यदि हम तुम्हारे कुछ लोगों को क्षमा भी कर दें तो भी कुछ लोगों को यातना देकर ही रहेंगे, क्योंकि वे अपराधी हैं।" [क़ुरआन, सूरह अल-तौबा 9:66]
वे अल्लाह की क़समें खाते हैं कि उन्होंने नहीं कहा, हालाँकि उन्होंने अवश्य ही कुफ़्र की बात कही है और अपने इस्लाम स्वीकार करने के पश्चात इनकार किया, और वह चाहा जो वे न पा सके| उनके प्रतिशोध का कारण तो यह है कि अल्लाह और उस के रसूल ने अपने अनुग्रह से उन्हें समृद्ध कर दिया| अब यदि वे तौबा कर लें तो उन्हीं के लिए अच्छा है और यदि उन्होंने मुँह मोड़ा तो अल्लाह उन्हें दुनिया और आख़िरत में दुखद यातना देगा और धरती में उन का न कोई मित्र होगा और न सहायक। [क़ुरआन, सूरह अल-तौबा 9:74]
E) जिस किसी ने अपने ईमान के पश्चात अल्लाह के साथ कुफ़्र किया सिवाय उस के जो इस के लिए विवश कर दिया गया हो और दिल उस का ईमान पर सन्तुष्ट हो - बल्कि वह जिस ने सीना कुफ़्रके लिए खोल दिया हो, तो ऐसे लोगो पर अल्लाह का प्रकोप है और उन के लिए बड़ी यातना है।[क़ुरआन, सूरह अल-नहल 16:106]
E) जिस किसी ने अपने ईमान के पश्चात अल्लाह के साथ कुफ़्र किया सिवाय उस के जो इस के लिए विवश कर दिया गया हो और दिल उस का ईमान पर सन्तुष्ट हो - बल्कि वह जिस ने सीना कुफ़्रके लिए खोल दिया हो, तो ऐसे लोगो पर अल्लाह का प्रकोप है और उन के लिए बड़ी यातना है।[क़ुरआन, सूरह अल-नहल 16:106]
निश्चय ही आख़िरत में वही घाटे में रहेंगे। [क़ुरआन, सूरह अल-नहल 16:109]
F) निःसंदेह वे लोग जो पीठफेरकर पलट गए, इस के पश्चात कि उन पर मार्ग स्पष्ट हो चुका था, उन्हें शैतान ने बहका दिया और उस ने उन्हें ढील दे दी। [क़ुरआन, सूरह मुहम्मद 47:25]
F) निःसंदेह वे लोग जो पीठफेरकर पलट गए, इस के पश्चात कि उन पर मार्ग स्पष्ट हो चुका था, उन्हें शैतान ने बहका दिया और उस ने उन्हें ढील दे दी। [क़ुरआन, सूरह मुहम्मद 47:25]
मुद्दे का सार (असल):
1. क़ुरआन ईमान लाने या इंकार करने की पूरी आज़ादी देता है।किसी पर इस्लाम को मानने के लिए ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं की जा सकती।किसी को इस्लाम छोड़ने पर मृत्युदंड के नाम से धमकाया नहीं जा सकता।
2. क़ुरआन ने कुछ जगहों पर धर्मत्याग का ज़िक्र किया है, लेकिन एक बार भी अल्लाह ने ये नहीं कहा कि उसे मार दिया जाए।
कृपया इस पर ध्यान दें – प्रायः हर जगह अल्लाह ने आखिरत (नरक) के दंड का ज़िक्र किया है।
3. सबसे बड़ी बात ये है कि अधिकतर आयात जो धर्मत्याग का ज़िक्र करती हैं मदीना में नाज़िल हुई थीं जहां इस्लामिक विधान (स्टेट) कायम था| कल्पना करें यहां तक की सूरह तौबा (जो युद्ध के समय नाज़िल हुई थी) धर्मत्याग की बात करती है पर धर्मत्यागी (मुर्तद) को मृत्युदंड का ज़िक्र नहीं करती।मदीना में इस्लामिक विधान (स्टेट) कायम हो चुका था और आपराधिक कानून बन चुके थे, ऐसी परिस्थिति में इस बात को नाज़िल करना क्या बड़ी बात थी किमुर्तद (धर्मत्यागी) को मृत्युदंड दिया जाए?
1. क़ुरआन ईमान लाने या इंकार करने की पूरी आज़ादी देता है।किसी पर इस्लाम को मानने के लिए ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं की जा सकती।किसी को इस्लाम छोड़ने पर मृत्युदंड के नाम से धमकाया नहीं जा सकता।
2. क़ुरआन ने कुछ जगहों पर धर्मत्याग का ज़िक्र किया है, लेकिन एक बार भी अल्लाह ने ये नहीं कहा कि उसे मार दिया जाए।
कृपया इस पर ध्यान दें – प्रायः हर जगह अल्लाह ने आखिरत (नरक) के दंड का ज़िक्र किया है।
3. सबसे बड़ी बात ये है कि अधिकतर आयात जो धर्मत्याग का ज़िक्र करती हैं मदीना में नाज़िल हुई थीं जहां इस्लामिक विधान (स्टेट) कायम था| कल्पना करें यहां तक की सूरह तौबा (जो युद्ध के समय नाज़िल हुई थी) धर्मत्याग की बात करती है पर धर्मत्यागी (मुर्तद) को मृत्युदंड का ज़िक्र नहीं करती।मदीना में इस्लामिक विधान (स्टेट) कायम हो चुका था और आपराधिक कानून बन चुके थे, ऐसी परिस्थिति में इस बात को नाज़िल करना क्या बड़ी बात थी किमुर्तद (धर्मत्यागी) को मृत्युदंड दिया जाए?
4. ऐसी जगह पर ये कहना क्या मुश्किल था कि मुर्तद (धर्मत्यागी) की सज़ा मृत्युदंड है| लेकिन नहीं,क़ुरआन ने ऐसा कभी नहीं कहा।
5. कोई भी निष्पक्ष मुस्लिम या गैर मुस्लिम क़ुरआन की इन आयात पर गौर करने के बाद इस बात पर सहमत हो जाएगा कि क़ुरआन धर्मत्याग के लिए मृत्युदंड नहीं सिखाता है।
6. धर्मत्यागी (मुर्तद) को मृत्युदंड साफ तौर पर क़ुरआन की इन आयात के खिलाफ है: क़ुरआन 2:256, 3:90, 4:137
7. क़ुरआन 5:32 में इस बात को साफ करता है कि मृत्युदंड कब दिया जा सकता है –एक कंडीशन तो है हत्या (क़त्ल); और दूसरी कंडीशन है धरती (ज़मीन) पर फसाद।एक इंसान को धर्मत्याग के लिए मृत्युदंड सिर्फ तभी दिया जा सकता है जबकि उसका धर्मत्याग "फसाद" वाली कैटेगरी में आ रहा हो| मतलब ज़मीन पर फसाद मचाना या और बेहतर बोला जाए तोधरती पर शांति (अमन) को बिगाड़ना”. ये इस्लामिक विधान (स्टेट) के शासकों (हुक्मरानों) पर है किवो निर्णय करें कि कोई धर्मत्याग का मामला फसाद फिल अर्द(ज़मीन पर फसाद मचाने) वाला है यानहीं| ये "फसाद" या "ज़मीन में बुराई फैलाना" अमूर्त (अब्स्ट्रैक्ट) टर्म (इस्तिलाह) है और इसको लागूकरने में समय के हिसाब से और मामले के हिसाब से परिवर्तन होगा।यहां नोट करने वाली ज़रूरी बात ये है कि मृत्युदंड ज़मीन (धरती) पर फसाद फैलाने के लिए होगा, ना कि सिर्फ धर्मत्याग पर या मुर्तद होने पर।
5. कोई भी निष्पक्ष मुस्लिम या गैर मुस्लिम क़ुरआन की इन आयात पर गौर करने के बाद इस बात पर सहमत हो जाएगा कि क़ुरआन धर्मत्याग के लिए मृत्युदंड नहीं सिखाता है।
6. धर्मत्यागी (मुर्तद) को मृत्युदंड साफ तौर पर क़ुरआन की इन आयात के खिलाफ है: क़ुरआन 2:256, 3:90, 4:137
7. क़ुरआन 5:32 में इस बात को साफ करता है कि मृत्युदंड कब दिया जा सकता है –एक कंडीशन तो है हत्या (क़त्ल); और दूसरी कंडीशन है धरती (ज़मीन) पर फसाद।एक इंसान को धर्मत्याग के लिए मृत्युदंड सिर्फ तभी दिया जा सकता है जबकि उसका धर्मत्याग "फसाद" वाली कैटेगरी में आ रहा हो| मतलब ज़मीन पर फसाद मचाना या और बेहतर बोला जाए तोधरती पर शांति (अमन) को बिगाड़ना”. ये इस्लामिक विधान (स्टेट) के शासकों (हुक्मरानों) पर है किवो निर्णय करें कि कोई धर्मत्याग का मामला फसाद फिल अर्द(ज़मीन पर फसाद मचाने) वाला है यानहीं| ये "फसाद" या "ज़मीन में बुराई फैलाना" अमूर्त (अब्स्ट्रैक्ट) टर्म (इस्तिलाह) है और इसको लागूकरने में समय के हिसाब से और मामले के हिसाब से परिवर्तन होगा।यहां नोट करने वाली ज़रूरी बात ये है कि मृत्युदंड ज़मीन (धरती) पर फसाद फैलाने के लिए होगा, ना कि सिर्फ धर्मत्याग पर या मुर्तद होने पर।
क्या मृत्युदंड को हदीसों पर छोड़ा जा सकता है?
कुछ लोग कहते हैं “मुर्तद को मृत्युदंड” क़ुरआन में नहीं हैपर हदीसों में है।” ये लोग ये नहीं समझ पाते कि क़ुरआन से ये बिल्कुल साफ है कि "धर्मत्यागी (मुर्तद) को मृत्युदंड"क़ुरआन की कुछ आयातके खिलाफ है।
इस्लाम में ज़िन्दगी बोहोत कीमती है; एक ऐसा अपराध जिस पर मृत्युदंड दिया जाए उसे क़ुरआन मेंसाफ तौर पर होना ज़रूरी है।
जब अल्लाह ने अलग अलग अपराधों और उनके दंडों (सज़ाओं) का ज़िक्र क़ुरआन में किया है - कुछऐसे भी हैं जो मौत से कम शदीद (सख्त) हैं; मिसाल के तौर पर: हाथों का काटा जाना, ज़िना (व्याभिचार) के आरोप (इल्ज़ाम) में कोड़ों की सज़ा - तो अल्लाह एक ऐसे अपराध को हदीसों पर कैसे छोड़ सकता है जिसकी सज़ा इतनी सख्त हो? जैसा कि मैंने पहले बताया- धर्मत्याग परिस्थिति के अनुसार "धरती पर फसाद" के अन्तर्गत आ भी सकता है और नहीं भी| लेकिन,ये कहना कि धर्मत्याग अपने आप में एक अपराध है जिसकी सज़ा मृत्युदंड है, ये क़ुरआन केखिलाफ है।
जब अल्लाह ने अलग अलग अपराधों और उनके दंडों (सज़ाओं) का ज़िक्र क़ुरआन में किया है - कुछऐसे भी हैं जो मौत से कम शदीद (सख्त) हैं; मिसाल के तौर पर: हाथों का काटा जाना, ज़िना (व्याभिचार) के आरोप (इल्ज़ाम) में कोड़ों की सज़ा - तो अल्लाह एक ऐसे अपराध को हदीसों पर कैसे छोड़ सकता है जिसकी सज़ा इतनी सख्त हो? जैसा कि मैंने पहले बताया- धर्मत्याग परिस्थिति के अनुसार "धरती पर फसाद" के अन्तर्गत आ भी सकता है और नहीं भी| लेकिन,ये कहना कि धर्मत्याग अपने आप में एक अपराध है जिसकी सज़ा मृत्युदंड है, ये क़ुरआन केखिलाफ है।
नोट : एक सच्चे "मुस्लिम" या अल्लाह और उस के कलाम में ईमान रखने वाले के लिए- ये लेख (आर्टिकल) अपने मकसद में यहीं पर पूरा हो चुका; लेकिन, चूंकि अक्सर मुस्लिम कहलाने वाले लोगोंने क़ुरआन को छोड़ रखा है और असल में वो पूरीतरह (प्रैक्टिकली) क़ुरआन पर यकीन नहीं रखते –इसीलिए आगे और जानकारी दी जा रही है।
E. हदीस का विश्लेषण जो कथित तौर पर ये साबित करती है कि धर्मत्यागी (मुर्तद) को मृत्युदंड मिलना चाहिए
1. हदीस जो कहती है – “जिसने अपना धर्म बदला, उसे मार दो”जैसा कि नतीजे में साफ हो जाना चाहिए, इकलौती हदीस जोधर्मत्याग के लिए कानूनी तौर पर मृत्युदंड का प्रावधान देती है वो कुछ फर्क के साथ इनमें मिलती है| बुखारी 2794, 6411, अबु दाऊद 3787, तिरमिज़ी 1378, नसाई 3991-7, इब्न माजाह 2526, अहमद 1776, 2420, 2813 (cf. अहमद 1802).
E. हदीस का विश्लेषण जो कथित तौर पर ये साबित करती है कि धर्मत्यागी (मुर्तद) को मृत्युदंड मिलना चाहिए
1. हदीस जो कहती है – “जिसने अपना धर्म बदला, उसे मार दो”जैसा कि नतीजे में साफ हो जाना चाहिए, इकलौती हदीस जोधर्मत्याग के लिए कानूनी तौर पर मृत्युदंड का प्रावधान देती है वो कुछ फर्क के साथ इनमें मिलती है| बुखारी 2794, 6411, अबु दाऊद 3787, तिरमिज़ी 1378, नसाई 3991-7, इब्न माजाह 2526, अहमद 1776, 2420, 2813 (cf. अहमद 1802).
अहमद इब्न मुहम्मद इब्न हंबल ने हमें बताया: इस्माईल इब्न इब्राहीम ने हमें बताया: अय्यूब ने इक्रिमाह से हमें बताया कि अली र० ने कुछ लोगों को जलाया जिन्होंने इस्लाम छोड़ा था।ये बात इब्न अब्बास के पास पोहची और उन्होंने कहा : “मैं उन्हें आग से नहीं जलाता।बेशक (निःसन्देह) अल्लाह के रसूल स० ने बताया था : ‘ईश्वर के दंड(सज़ा) से दंड (सज़ा) मत दो।’ मैं उन्हें अल्लाह के रसूल स० के पैग़ाम के मुताबिक़ मारता।क्योंकि बेशक (निःसन्देह) अल्लाह के रसूल स० ने बताया : ‘जो कोई अपना धर्म बदले उसे मार दो’।"ये बात अली र० के पास पोहची, और उन्होंने कहा : ‘खराबी हो इब्न अब्बास के लिए’।(अबु दाऊद 3787)
इस हदीस के साथ बड़ी समस्याएं (दिक्कतें) :
1. ये हदीस अलग अलग किताबों में है जिसके आखिरी हिस्से में टकराव (फर्क) है।हदीस की अलग अलग रिवायतों में कुछ फर्क है, जिनमें कुछ महत्वपूर्ण हैं।अलग अलग रिवायतों के हिसाब से हज़रत अली ने अलग अलग बातें कहीं :
“खराबी हो इब्न अब्बास के लिए” (वयहा इब्न ‘अब्बास).
“खराबी हो इब्न अब्बास की माँ के लिए” (वयहा उम्म इब्न ‘अब्बास)
“इब्न अब्बास ने सच कहा।” (स ’दक़ा इब्न ‘अब्बास)
2. इस हदीस के एक महत्वपूर्ण रावी (हदीस बताने वाला) -‘इक्रिमाह, इब्न अब्बास के गुलाम, की मुहद्दिसीन (हदीसों के आलिमों) ने अलग अलग आलोचना (समीक्षा) की है।हालांकि कुछ लोगों ने उन्हें काबिले कबूल (यकीन करने लायक) रावी समझा हैजबकि कुछ ने उन्हें झूठा या कम से कम नाकाबिले कबूल (जिसका यकीन ना किया जा सके) समझा है।कई ने उन्हें झूठा, धोखेबाज़ और इब्न अब्बास के नाम पर गलत बायानी करने वालासमझा है।
1. ये हदीस अलग अलग किताबों में है जिसके आखिरी हिस्से में टकराव (फर्क) है।हदीस की अलग अलग रिवायतों में कुछ फर्क है, जिनमें कुछ महत्वपूर्ण हैं।अलग अलग रिवायतों के हिसाब से हज़रत अली ने अलग अलग बातें कहीं :
“खराबी हो इब्न अब्बास के लिए” (वयहा इब्न ‘अब्बास).
“खराबी हो इब्न अब्बास की माँ के लिए” (वयहा उम्म इब्न ‘अब्बास)
“इब्न अब्बास ने सच कहा।” (स ’दक़ा इब्न ‘अब्बास)
2. इस हदीस के एक महत्वपूर्ण रावी (हदीस बताने वाला) -‘इक्रिमाह, इब्न अब्बास के गुलाम, की मुहद्दिसीन (हदीसों के आलिमों) ने अलग अलग आलोचना (समीक्षा) की है।हालांकि कुछ लोगों ने उन्हें काबिले कबूल (यकीन करने लायक) रावी समझा हैजबकि कुछ ने उन्हें झूठा या कम से कम नाकाबिले कबूल (जिसका यकीन ना किया जा सके) समझा है।कई ने उन्हें झूठा, धोखेबाज़ और इब्न अब्बास के नाम पर गलत बायानी करने वालासमझा है।
3. अगर हम हदीस पर यकीन करें तो हमें ये मानना पड़ेगा कि या तो सय्यिदुना अली र० अल्लाह के रसूल स० की आग से जलाने पर रोक (मनाही) को नहीं जानते थे या उन्होंने जान बूझकर उसकेखिलाफ किया। दोनों संभावनाएं दूर दूर तक समझ नहीं आतीं।
और यहां तक कि अगर हज़रत अली र० कुछ वजहों से जलाने पर रोक वाली हदीस से अनजान भी थे, तो कई और बड़े सहाबा तब ज़िंदा थे, वो इस बारे में जानते होते।
तो वो अली र० को बताते, जब वो लोगों को जलाने की तैयारी कर रहे थे, या जलाने के बाद बताते।
और यहां तक कि अगर हज़रत अली र० कुछ वजहों से जलाने पर रोक वाली हदीस से अनजान भी थे, तो कई और बड़े सहाबा तब ज़िंदा थे, वो इस बारे में जानते होते।
तो वो अली र० को बताते, जब वो लोगों को जलाने की तैयारी कर रहे थे, या जलाने के बाद बताते।
4. लोगों को जलाने पर रोक वाली हदीस के अलावा रसूल अल्लाह स० या अबु बकर र० या उमर र०या उस्मान र० द्वारा लोगों को जलाए जाने की कोई रिवायत नहीं है।तो अली र० अपने से पहले खलीफाओं के रास्ते से अलग क्यों चले? हो सकता है वो उन लोगों पर बोहोत गुस्सा हो गए हों और उन्हें सख्त सज़ा देना चाहते हों।लेकिन ये गुस्से में कोई काम करना खुल्फाए राशिदून का तरीका नहीं था।अली र० का किरदार (चरित्र) तो वो था जो हमें उस रिवायत में मिलता है जिसमें वो युद्ध के दौरान एक काफिर को मारने वाले होते हैं जब वो उन पर थूक देता है।अली र० अपनी तलवार पीछे हटाते हैं और उसको जाने देते हैं।जब उनसे पूछा जाता है कि उन्होंने अपनी तलवार पीछे क्यों हटाई, अली र० ने फौरन जवाब दिया कि जिस आदमी ने उन पर थूका था वो उनके इरादे (सोच) की उस पाकी (पवित्रता) को दाग़दार करदेता जो सिर्फ अल्लाह की राह (मार्ग) में लड़ने की थी।तो अली र० के ज़्यादा गुस्से की वजह से लोगों को मारने के बिल्कुल आसार नहीं हैं।ये चीज़ तो खुल्फाए राशिदून के बाद में जारी हुई जब शासक (राजा) ताक़त के इच्छुक, तानाशाह और अन्यायी हो गए।
5. इसके अलावा अगर अली र० ने कुछ लोगों को जलाया होता तो कई मुस्लिम इसके बारे में जान जाते, न कि दंड के अभूतपूर्व स्वरूप की वजह से इतने कम।जिसके फलस्वरूप जलाने की रिवायतें उस तरह इतिहास की कई किताबों में मिलतीं।लेकिन हमें जलाने के बारे में कोई स्वतंत्र रिवायत किसी मशहूर (प्रख्यात) ज़रिए (स्त्रोत) से नहीं मिलती। कुछ और कारण (वजहें) भी हैं जो इस हदीस के सही होने पर सवालिया निशान लगाती हैं।
इस हदीस पर और ज़्यादा गौरो फिक्र के लिए : कृपया यहां पढ़ें - http://islamicperspectives.com/PunishmentOfApostasy_Part2.html
2. कुछ मुर्तद (धर्मत्यागी) हत्या (क़त्ल) करने की वजह से मारे गए
किसी भी आम समझ (सामान्य बुद्धि) रखने वाले इंसान के लिए ये मुश्किल नहीं होना चाहिए कि इस निम्न (दी हुई) हदीस में जो रसूल अल्लाह स० ने कुछ लोगों का क़त्ल करने वाले मुर्तदों को मृत्युदंड देने का हुक्म दिया – वो मृत्युदंड क़त्ल के लिए था न कि धर्मत्याग के लिए।ये क़ुरआन के मुताबिक़ है और रसूल (संदेष्टा) सिर्फ क़ुरआन (ईशवाणी) की स्थापना के लिए ही आते हैं।
‘उकल और ‘उरैनाह से कुछ लोगों का जत्था (ग्रुप) मदीना आया और उन्होंने इस्लाम स्वीकार किया।बाद में वो मुर्तद (धर्मत्यागी) हो गए, एक चरवाहे पर अत्याचार किया और उसकी हत्या कर दी (एकदूसरी संस्करण में कई चरवाहों का ज़िक्र है) और उनके बदन के अंगों को चीर फाड़ दिया।रसूल अल्लाह स० ने उन्हें गिरफ्तार करने का हुक्म दिया और उन्हें मृत्युदंड दे दिया गया।सही अल-बुखारी, op. cit., जिल्द.8, हदीस नं० # 794, 795, 796, 797, pp. 519-522.
F. रसूल अल्लाह स० ने मुर्तद (धर्मत्यागी) को मृत्युदंड का आदेश नहीं दिया
हदीस की किताबों से कुछ सबूत हैं जहां रसूल अल्लाह स० ने मुर्तद को मृत्युदंड का हुक्म नहीं दिया;अगर मृत्युदंड अल्लाह की तरफ से बताया गया ईश्वरीय दंड होता तो रसूल अल्लाह स० ज़रूर अल्लाह के हुक्म पर अमल करते।ये बात क़ुरआन के भाव के मुताबिक़ है कि धर्मत्याग की सज़ा मृत्युदंड नहीं है।
1. नीचे दी हुई हदीस बताती है कि कैसे एक इंसान ने इस्लाम स्वीकार किया और फिर छोड़ दिया, फिर भी रसूल अल्लाह स० ने उसको मृत्युदंड का हुक्म नहीं दिया।
याहया ने मुझे बताया, उन्होंने मालिक से सुना, उन्होंने मुहम्मद बिन अलमुनकदिर से, उन्होंने जाबिर बिन अब्दुल्लाह से : एक बद्दू ने इस्लाम स्वीकारने की बैत (निष्ठा की प्रतिज्ञा) ली।अगले दिन उसे बुखार आ गया और वो रसूल अल्लाह स० के पास आया , और उसने कहा : "ऐ अल्लाह के रसूल स०! मेरी बैत रद्द कर दें।" रसूल अल्लाह स० ने इंकार कर दिया।वह उनके पास दोबारा आया और कहा : "मेरी बैत रद्द कर दें।" उन्होंने इंकार कर दिया।वह एक बार और उनके पास आया और कहा : "मेरी बैत रद्द कर दें।" उन्होंने फिर इंकार कर दिया।फिर वो बद्दू बाहर चला गया।तब रसूल अल्लाह स० ने कहा:"मदीना बिल्कुल भट्टी की तरह है; ये आलूदगी (गंदगी) को बाहर निकाल देता है और सिर्फ अच्छाई (पाकीज़गी) को रोकता है।" (मुवत्ता 1377)
2. हम अब्दुल्लाह बिन अबि सारह का मशहूर वाक़िआ जानते हैं।वह मुस्लिम बना, रसूल अल्लाह स० के लिए लिखा करता था लेकिन शैतान ने उसे धोखे में डाल दिया और वो काफिरों सेजा मिला।फतह मक्का (मक्का को जीतने) वाले दिन रसूल अल्लाह स० ने उसको मृत्युदंड देने का हुक्म दिया।यह हुक्म उसके मुर्तद (धर्मत्यागी) होने की वजह से नहीं बल्कि इस्लाम का खुला दुश्मन बनने की वजह से था।लेकिन उस्मान इब्न आफान र० ने उसके बचाव (हिफ़ाज़त) की मांग की और रसूल अल्लाह स० ने उन्हें इजाज़त दे दी। अब हमने देखा कि आखिरकार उसेमृत्युदंड नहीं मिला।अगर धर्मत्याग के लिए मृत्युदंड निश्चित होता तो रसूल अल्लाह स० ने उसे ज़रूर मृत्युदंड दे दिया होता। (अबु दाऊद 3792, नसाई 4001)
इस हदीस पर और ज़्यादा गौरो फिक्र के लिए : कृपया यहां पढ़ें - http://islamicperspectives.com/PunishmentOfApostasy_Part2.html
2. कुछ मुर्तद (धर्मत्यागी) हत्या (क़त्ल) करने की वजह से मारे गए
किसी भी आम समझ (सामान्य बुद्धि) रखने वाले इंसान के लिए ये मुश्किल नहीं होना चाहिए कि इस निम्न (दी हुई) हदीस में जो रसूल अल्लाह स० ने कुछ लोगों का क़त्ल करने वाले मुर्तदों को मृत्युदंड देने का हुक्म दिया – वो मृत्युदंड क़त्ल के लिए था न कि धर्मत्याग के लिए।ये क़ुरआन के मुताबिक़ है और रसूल (संदेष्टा) सिर्फ क़ुरआन (ईशवाणी) की स्थापना के लिए ही आते हैं।
‘उकल और ‘उरैनाह से कुछ लोगों का जत्था (ग्रुप) मदीना आया और उन्होंने इस्लाम स्वीकार किया।बाद में वो मुर्तद (धर्मत्यागी) हो गए, एक चरवाहे पर अत्याचार किया और उसकी हत्या कर दी (एकदूसरी संस्करण में कई चरवाहों का ज़िक्र है) और उनके बदन के अंगों को चीर फाड़ दिया।रसूल अल्लाह स० ने उन्हें गिरफ्तार करने का हुक्म दिया और उन्हें मृत्युदंड दे दिया गया।सही अल-बुखारी, op. cit., जिल्द.8, हदीस नं० # 794, 795, 796, 797, pp. 519-522.
F. रसूल अल्लाह स० ने मुर्तद (धर्मत्यागी) को मृत्युदंड का आदेश नहीं दिया
हदीस की किताबों से कुछ सबूत हैं जहां रसूल अल्लाह स० ने मुर्तद को मृत्युदंड का हुक्म नहीं दिया;अगर मृत्युदंड अल्लाह की तरफ से बताया गया ईश्वरीय दंड होता तो रसूल अल्लाह स० ज़रूर अल्लाह के हुक्म पर अमल करते।ये बात क़ुरआन के भाव के मुताबिक़ है कि धर्मत्याग की सज़ा मृत्युदंड नहीं है।
1. नीचे दी हुई हदीस बताती है कि कैसे एक इंसान ने इस्लाम स्वीकार किया और फिर छोड़ दिया, फिर भी रसूल अल्लाह स० ने उसको मृत्युदंड का हुक्म नहीं दिया।
याहया ने मुझे बताया, उन्होंने मालिक से सुना, उन्होंने मुहम्मद बिन अलमुनकदिर से, उन्होंने जाबिर बिन अब्दुल्लाह से : एक बद्दू ने इस्लाम स्वीकारने की बैत (निष्ठा की प्रतिज्ञा) ली।अगले दिन उसे बुखार आ गया और वो रसूल अल्लाह स० के पास आया , और उसने कहा : "ऐ अल्लाह के रसूल स०! मेरी बैत रद्द कर दें।" रसूल अल्लाह स० ने इंकार कर दिया।वह उनके पास दोबारा आया और कहा : "मेरी बैत रद्द कर दें।" उन्होंने इंकार कर दिया।वह एक बार और उनके पास आया और कहा : "मेरी बैत रद्द कर दें।" उन्होंने फिर इंकार कर दिया।फिर वो बद्दू बाहर चला गया।तब रसूल अल्लाह स० ने कहा:"मदीना बिल्कुल भट्टी की तरह है; ये आलूदगी (गंदगी) को बाहर निकाल देता है और सिर्फ अच्छाई (पाकीज़गी) को रोकता है।" (मुवत्ता 1377)
2. हम अब्दुल्लाह बिन अबि सारह का मशहूर वाक़िआ जानते हैं।वह मुस्लिम बना, रसूल अल्लाह स० के लिए लिखा करता था लेकिन शैतान ने उसे धोखे में डाल दिया और वो काफिरों सेजा मिला।फतह मक्का (मक्का को जीतने) वाले दिन रसूल अल्लाह स० ने उसको मृत्युदंड देने का हुक्म दिया।यह हुक्म उसके मुर्तद (धर्मत्यागी) होने की वजह से नहीं बल्कि इस्लाम का खुला दुश्मन बनने की वजह से था।लेकिन उस्मान इब्न आफान र० ने उसके बचाव (हिफ़ाज़त) की मांग की और रसूल अल्लाह स० ने उन्हें इजाज़त दे दी। अब हमने देखा कि आखिरकार उसेमृत्युदंड नहीं मिला।अगर धर्मत्याग के लिए मृत्युदंड निश्चित होता तो रसूल अल्लाह स० ने उसे ज़रूर मृत्युदंड दे दिया होता। (अबु दाऊद 3792, नसाई 4001)
एक बड़ी तादाद खुले तौर पर इस क़ुरआन के खिलाफ मुर्तद (धर्मत्याग) को मृत्युदंड के तसव्वुर के खिलाफ आगे आ रही है। पढ़ें http://apostasyandislam.blogspot.in/
G. निष्कर्ष (नतीजा)
1. यह एक बोहोत ज़्यादा विस्तृत (फैली हुई) मिथक है कि इस्लाम धर्मत्यागी (मुर्तद) को मृत्युदंड देता है।
2. इस्लाम ईमान की बोहोत ज़्यादा आज़ादी देता है; कोई भी ईमान लाने के लिए या ना लाने के लिए आज़ाद है। पढ़ें 2:256; 18:29; 10:99
3. हालांकि क़ुरआन कुछ जगह धर्मत्याग के मुद्दे का ज़िक्र करता है लेकिन एक बार भी क़ुरआन ने इसके लिए किसी दुनियावी (सांसारिक) दंड का ज़िक्र नहीं किया।असल में - ऐसी सभी जगहों पर - अल्लाह ने आखिरत (नरक) के दंडों (सज़ाओं) का ज़िक्र किया है। पढ़ें 2:217, 3:86-90, 4:137, 9:66,74, 16:106-109, 47:25-27
4. मुर्तद (धर्मत्यागी) को मृत्युदंड का तसव्वुर क़ुरआन की कुछ आयात से टकराता है।मिसाल के तौर पर - 4:137 ; 2:256
5. तकरीबन सारी आयात जो धर्मत्यागी से मुतअल्लिक़ (संबद्ध) हैं मदीना में नाज़िल हुई थीं जहां इस्लामिक विधान (स्टेट) क़ायम था और इस्लामिक आपराधिक कानून लागू था।ऐसी अनुकूल परिस्थिति में अल्लाह को धर्मत्याग के लिए मृत्युदंड का विधान उतारने में कोई दिक्कत नहींथी।
6. ईश्वर (अल्लाह) धर्मत्याग के लिए निर्धारित ईश्वरीय दंड को हदीस पर नहीं छोड़ सकता जबकि क़ुरआन उन अपराधों और उनके दंडों (सज़ाओं) के बारे में साफ साफ बताता है जिनका दंड मृत्युदंड से कम सख्त है। 5:32-33; 5:38; 24:2
7. अब जबकि ज़्यादातर मुस्लिमों ने क़ुरआन को छोड़ दिया है (25:30) तो वो ऐसा सोचते हैं कि मुर्तद (धर्मत्यागी) को मृत्युदंड देना चाहिए।
8. कुछ ही हदीसें जो मुर्तद (धर्मत्यागी) के लिए मृत्युदंड की विचारधारा देती हैं, उनमें बोहोत टकराव(विरोधाभास) और खामियां (कमियां) हैं।
9. रसूल अल्लाह स० ने कभी भी धर्मत्याग के लिए मृत्युदंड का हुक्म नहीं दिया।हदीसों से कुछ मिसालें ये सिद्ध (साबित) करती हैं कि जबकि कुछ लोगों ने इस्लाम छोड़ा, रसूल अल्लाह स०ने उन्हें मृत्युदंड का हुक्म नहीं दिया।
G. निष्कर्ष (नतीजा)
1. यह एक बोहोत ज़्यादा विस्तृत (फैली हुई) मिथक है कि इस्लाम धर्मत्यागी (मुर्तद) को मृत्युदंड देता है।
2. इस्लाम ईमान की बोहोत ज़्यादा आज़ादी देता है; कोई भी ईमान लाने के लिए या ना लाने के लिए आज़ाद है। पढ़ें 2:256; 18:29; 10:99
3. हालांकि क़ुरआन कुछ जगह धर्मत्याग के मुद्दे का ज़िक्र करता है लेकिन एक बार भी क़ुरआन ने इसके लिए किसी दुनियावी (सांसारिक) दंड का ज़िक्र नहीं किया।असल में - ऐसी सभी जगहों पर - अल्लाह ने आखिरत (नरक) के दंडों (सज़ाओं) का ज़िक्र किया है। पढ़ें 2:217, 3:86-90, 4:137, 9:66,74, 16:106-109, 47:25-27
4. मुर्तद (धर्मत्यागी) को मृत्युदंड का तसव्वुर क़ुरआन की कुछ आयात से टकराता है।मिसाल के तौर पर - 4:137 ; 2:256
5. तकरीबन सारी आयात जो धर्मत्यागी से मुतअल्लिक़ (संबद्ध) हैं मदीना में नाज़िल हुई थीं जहां इस्लामिक विधान (स्टेट) क़ायम था और इस्लामिक आपराधिक कानून लागू था।ऐसी अनुकूल परिस्थिति में अल्लाह को धर्मत्याग के लिए मृत्युदंड का विधान उतारने में कोई दिक्कत नहींथी।
6. ईश्वर (अल्लाह) धर्मत्याग के लिए निर्धारित ईश्वरीय दंड को हदीस पर नहीं छोड़ सकता जबकि क़ुरआन उन अपराधों और उनके दंडों (सज़ाओं) के बारे में साफ साफ बताता है जिनका दंड मृत्युदंड से कम सख्त है। 5:32-33; 5:38; 24:2
7. अब जबकि ज़्यादातर मुस्लिमों ने क़ुरआन को छोड़ दिया है (25:30) तो वो ऐसा सोचते हैं कि मुर्तद (धर्मत्यागी) को मृत्युदंड देना चाहिए।
8. कुछ ही हदीसें जो मुर्तद (धर्मत्यागी) के लिए मृत्युदंड की विचारधारा देती हैं, उनमें बोहोत टकराव(विरोधाभास) और खामियां (कमियां) हैं।
9. रसूल अल्लाह स० ने कभी भी धर्मत्याग के लिए मृत्युदंड का हुक्म नहीं दिया।हदीसों से कुछ मिसालें ये सिद्ध (साबित) करती हैं कि जबकि कुछ लोगों ने इस्लाम छोड़ा, रसूल अल्लाह स०ने उन्हें मृत्युदंड का हुक्म नहीं दिया।
******* serviceforhumanity@gmail.com
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नोट* अगर आप इस बात से सहमत नहीं हैं तो गुमराही / कुफ्र / शिर्क / बिददत के फतवे देने के बजाय - अल्लाह पर भरोसा रखें और इसे फैसले के लिए उसी पर छोड़ दें।
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